आपके मायने में आशियाने की परिभाषा क्या? अपना काम बनता,भाड़ में जाए जनता : अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

Loading

शाम का समय, गोधूलि बेला में घर की बालकनी में बैठकर चाय की चुस्कियाँ लेने का जो आनंद है, उसे शब्दों में बयाँ कर पाना मुश्किल है। मेरा पेड़-पौधों और खुले वातावरण से विशेष लगाव है, इसलिए मैं अक्सर शाम का समय घर की बालकनी में ही बिताता हूँ। एक शाम मैं बालकनी में बैठा चाय का आनंद ले रहा था, तभी मेरी नज़र बालकनी के कोने में बने रोशनदान पर पड़ी। वहाँ मैंने दो गोरैया देखीं। शायद वह नर-मादा का जोड़ा था, जो बार-बार बालकनी के इस कोने से उस कोने तक आ जा रहा था। काफी देर तक उन्हें देखने के बाद मुझे समझ आया कि वह जोड़ा अपना घोंसला बनाने के लिए जगह खोज रहा है।

एक शाम फिर मैं बालकनी में बैठा था, तब मेरा ध्यान बालकनी के दाहिने कोने पर गया, जहाँ से गौरेया उड़ान भरती शायद वह कुछ ढूँढने जाती थी और थोड़ी देर बाद अपनी चोंच में एक तिनका लिए वापस आती। उस तिनके को वह गोरैया बालकनी के दाहिने कोने में लाकर रख देती और फिर से उड़ान भर लेती। उस जोड़े ने अपना घोंसला बनाना शुरू कर दिया था। इस प्रक्रिया को मैं काफी समय तक देखता रहा। लोग कहते हैं एक ही चीज़ को बार-बार देखना उबाऊ हो सकता है। लेकिन यह मैंने इस बात का खंडन होते देखा। उस गोरैया को बार-बार तिनका लाते और घोंसला बनाते देखना, मेरे मन को बड़ा सुकून दे रहा था।

उसकी मेहनत को देखकर मन में ख्याल आया कि कैसे ये बेज़ुबान परिंदे अपना घरौंदा बनाने के लिए सही जगह का ही चयन करते हैं, जहाँ कोई उनके आशियाने को मिटा न सके। फिर भी उनके इन आशियानों को कई बार हम जाने-अनजाने कभी सफाई के नाम पर, तो कभी किसी और वजह से उजाड़ देते हैं। सोचो ज़रा क्या बीतती होगी उन परिंदों पर और अन्य प्राणियों पर, जिन्होंने चुन-चुन कर लाए गए तिनकों को बड़ी मेहनत और प्यार से संजोकर अपना आशियाना बनाया, फिर भी बेचारे बेघर हो गए हो। अब आप मकड़ी के जाले को ही देख लीजिए, हमें एक पल भी नहीं लगता झाड़ू से घर के कोने साफ़ करने में, लेकिन हमारे इस एक पल से उस मकड़ी की कई घंटों की मेहनत और उसका आशियाना दोनों तबाह हो जाते हैं। 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ इन बेज़ुबान परिंदों के ही घर उजाड़े जाते हैं, इन हालातों से न जाने कितने ही गरीब भी वर्षों से जूझ रहे हैं। इन लोगों को दो वक़्त की रोटी के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं, तो घर खरीदने का तो सवाल ही नहीं उठता। ये लोग तो बस ऐसी जगह की तलाश करते हैं, जहाँ इनके रहने से किसी को कोई परेशानी न हो। इसलिए शहर में बने नदी-नालों के आस-पास खाली पड़ी ज़मीन पर ही अपना आशियाना बना लेते हैं। जिस जगह से गुजरने में हम लोग नाक-मुँह सिकोड़ लेते हैं, वहाँ ये गरीब लोग अपने परिवार के साथ खुशी-खुशी रहते हैं। बेचारे करें भी तो क्या? उनके पास दूसरा कोई विकल्प होता ही कहाँ है? हालाँकि ये लोग इस बात से अनजान नहीं होते कि जब भी कोई पुल या बड़ी ईमारत शहर के विकास के लिए तैयार की जाएगी, वह इनके घरौंदों को मिटाकर ही बनेगी।

मेरा मानना है कि हर वो जगह आशियाना होती है जहाँ लोग अपने परिवार के साथ प्रेमपूर्वक रहते हैं, फिर चाहे वह आलीशान महल हो या झोपड़ी…. लेकिन लोगों के लिए आशियाने का मतलब अक्सर बड़े-बड़े बंगले और आलिशान महल ही होता है। हर किसी के लिए उसका घर आशियाना होता है- मकड़ी के लिए उसका जाला ही आशियाना है, परिंदों के लिए उनका घोंसला ही आशियाना है, चूहे के लिए उसका बिल ही आशियाना है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *